हिंदू पुराणों के अनुसार प्राचीन समय की बात है कि जब भगवान विष्णु ने वराह अवतार द्वारा हिरण्याक्ष का वध किया तो हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकश्यप बहुत दुखी हुआ, उसने ब्रह्मा जी की उग्र तपस्या प्रारंभ कर दी और वरदान स्वरूप अपनी मृत्यु के लिए असंभव शर्त रख दी ।
उसने अपने वरदान में मांगा की "जब वह मरे तब न दिन हो न रात हो, मैं ऊपर भी नही होना चाहिए और नीचे भी नही होना चाहिए, न हि मैं आकाश में,पानी में और ना ही धरती पर होना चाहिए, मैं किसी भी अस्त्र-शस्त्र से न मरूं और उसे मारने वाला प्राणी इस ब्रह्मा की बनाई हुई सृष्टि में ना हो"।
हिरण्यकश्यप ऐसा असंभव वरदान पाकर निरंकुश हो गया, उसने स्वर्ग में देवताओं को पराजित कर दिया, उसका भय और अत्याचार बढ़ते ही जा रहा थे ।
भक्त प्रहलाद का आगमन
हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु से द्वेष रखता था । उसे भगवान विष्णु का नाम सुनना भी पसंद नहीं था । ऐसे असुर के घर एक महान विष्णु भक्त प्रहलाद ने जन्म लिया , प्रह्लाद की माता का नाम कयाधु था ।
बचपन से ही प्रह्लाद खेल को छोड़कर विष्णु भक्ति में लीन रहता था । उसके पिता हिरण्य कश्यप को यह बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती थी , उसने प्रहलाद को प्रभु विष्णु की भक्ति से हटाने के लिए बहुत सारे प्रयत्न किए । परंतु जब उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गए तो उसने प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया ।
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भक्त प्रह्लाद को मारने के प्रयास
जब प्रह्लाद असुर जाति में प्रभु विष्णु का गुणगान करता था तब हिरण्यकश्यप इसे अपनी पराजय समझता था ।
उसने पहलाद को मारने के अनेकों प्रयास किए कभी उसे पर्वत से फेंक दिया परंतु भगवान श्री हरि की कृपा से हर बार उसे प्रभु ने अपनी गोद में थाम लिया । कभी उसने प्रहलाद को विष देने का प्रयत्न किया, तो प्रभु की कृपा से उस विष का प्रभाव भी खत्म हो गया ।
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होली की कहानी
जब प्रह्लाद को मारने का कोई भी उपाय शेष नहीं रहा तब उसने अपनी बहन होलिका को प्रह्लाद को मारने को कहा हिरण्यकश्यप की बहन होली का को ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त था । उसके पास ऐसा वस्त्र था, जो आग में नहीं जलता था ।
फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन प्रह्लाद की बुआ होलीका प्रह्लाद को लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठ गई और लकड़ियों को आग लगा दी गई परंतु श्री हरि की कृपा से ब्रह्मा जी का वह दिव्य वस्त्र प्रह्लाद के ऊपर आ गया , जिसके प्रभाव से प्रह्लाद का बाल भी बांका ने हुआ और दुष्टता की प्रतीक होलिका उसी अग्नि में जल गई तभी से प्रतिवर्ष होली का त्योहार मनाया जाने लगा ।
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नरसिंह भगवान का जन्म
जब प्रह्लाद को मारने का आखरी प्रयास भी विफल हो गया तब हिरण्यकश्यप गुस्से से तिलमिला उठा , उसने प्रहलाद को अपनी सभा में बुलाया और कहा "तुम मेरे आश्रय में पलते हो , तुम मेरे नाम का जाप करो, उस विष्णु के नाम का नहीं" इस पर भक्त प्रह्लाद ने कहा "यह सारी दुनिया प्रभु विष्णु से ही आश्रय पाती है, मेरे प्रभु विष्णु इस जगत के कण - कण में विराजमान हैं । जहां भी आप देखोगे वहां विष्णु जी ही नजर आएंगे" ।
प्रह्लाद की यह बात सुनकर हिरण्यकश्यप उपहास पूर्वक हँसा और कहां, हर जगह तुम्हारे विष्णु है, तो क्या इस खंभे में भी है ? इतना कहकर उसने खंबे पर जोर से प्रहार किया,जैसे ही उसने खंभे पर प्रहार किया , खंबा टूट गया और इसमें से नर और सिंह मिश्रित दिव्य प्रभु प्रकट हुये । जिस दिन नरसिंह प्रभु का जन्म हुआ पदम पुराण के अनुसार वह दिन वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी था ।
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वरदान की मर्यादा
जैसे ही हिरण्यकश्यप ने खंबा तोड़ा उसमे से प्रभु नरसिंह अवतरित हुये , जिन्की छवी देख वह भयभीत हुआ । भक्त प्रह्लाद ने उन्हे नमस्कार किया ।
वरदान की मर्यादानुसार नरसिंह प्रभु असुर हिरण्यकश्यप से युद्ध करते हुये उसे महल के झरोखे की तरफ ले गये ।
पापी हिरण्यकश्यप के पाप का घडा भर चुका था । उसने प्रभु विष्णु के परम भक्त प्रहलाद को सताने का घोर पाप किया था ।
हिरण्यकश्यप ने कहा - "न दिन है न रात यह तो दोनो के मिलन का समय है "।
प्रभु ने फिर पुछा - " तुम ऊपर हो या नीचे , पुथ्वी , जल और आकाश में"।
हिरण्यकश्यप ने कहा - " मै तो आपकी गोद में हूँ "।
उसके बाद प्रभु ने पुछा - " क्या मै ब्रह्मा जी की सृष्टी का कोई जीव हूँ "।
हिरण्यकश्यप ने कहा - " नही , आप ब्रह्मा की सृष्टी के जीव नही हो "।
इसके बाद प्रभु ने कहा " न मेरे पास अस्त्र है , न शस्त्र है केवल और केवल ये नाखुन है "।
हिरण्यकश्यप ने कहा - " सत्य है प्रभु , मै आपको पहचान गया , अब आप मुझ पापी का उद्वार करो , क्यो नही आप को जान पाया ? आप ने ब्रह्मा जी के वरदान की लाज रखी और मेरे वरदान की हर शर्त को पूरा किया है । भगवन् क्षमा करो ।
इतना कहते हि प्रभु ने हिरण्यकश्यप का उद्वार कर दिया ।
प्रभु की क्रोध शांती
इस संबध में दो कथाये प्रचलित है, एक है प्रभु शिव के शरभ अवतार की कथा और दूसरी कथा का उल्लेख करने जा रहा हूँ । ( दुसरी कथा को जानने के लिए पढ़े - भगवान शिव और शरभ अवतार की कहानी )
जब प्रभु ने हिरण्यकश्यप का वध किया तो युद्ध के दौरान हिरण्यकश्यप के अंत के पश्चात भी प्रभु का क्रोध शांत नही हुआ । सौम्य रूप प्रभु श्री हरी का इतना उग्र रूप देखकर स्वर्ग के देवता भी थर्रा उठे , तीनो लोको मे कोलाहल मच गया । प्रभु का क्रोध शांत करना किसी के बस में नही था ।
फिर ब्रह्मा जी की प्रार्थना से भक्त प्रहलाद ने प्रभु से शांती की प्रार्थना की श्री हरी कि यही तो लीला थी । भक्त की एक पुकार पर असंभव कार्य संभव हो गया । प्रभु नरसिंह का क्रोध शांत हो गया और उन्होंने भक्त प्रहलाद को स्नेहवश अपनी गोद में स्थान दिया ।
धन्य है भक्त की भक्ती और उसकी शक्ति की अपने भक्त की एक पुकार पर प्रभु दौडे चले आते है ।
" जय श्री हरि "