प्राचीन समय की बात है, पुराणों के अनुसार इस धरा पर अत्यंत क्रूर और बलशाली असुर महिषासुर रहता था, जिसने अपने पराक्रम और ब्रह्मा जी के द्वारा दिये हुए वरदान के फलस्वरूप, स्वर्ग को जीत लिया था ।महिषासुर की उत्पत्ति
पुराणों के अनुसार महिषासुर के पिता रंभ असुरो के राजा थे , असुरों का यह राजा रंभ एक सुन्दर अप्सरा समान युवती पर मोहित हो गया और उससे प्रेम करने लगा , रोज सूर्य उदय के पश्चात् वह उससे मिलता और एक दिन राजा रंभ ने उस स्त्री से विवाह कर लिया , लेकिन उस स्त्री को एक ऋषी का श्राप था , जिसके अनुसार वह सूर्यास्त के पश्चात् एक भैंस में परिवर्तित हो जाती थी ।
कुछ काल पश्चात् राजा रंभ को एक पुत्र की प्राप्ती हुई , जो आधा मनुष्य और आधे भैंसे के समान था । राजा रंभ का यह पुत्र अत्यंत बलशाली और अनेको शक्तियों से युक्त था । उसे अपने माता - पिता दोनो की शक्तियाँ प्राप्त थी । अतः महिष माता होने और असुर जाती का होने के कारण वह महिषासुर कहलाया । यह अपनी इच्छा अनुसार मनुष्य रूप और भैंसे का रूप धारण कर सकता था ।
महिषासुर का वरदान
महिषासुर ने अमर होने की कामना से ब्रह्मा जी की उपासना प्रारंभ की । उसने कई वर्षों तक ब्रह्मा जी की दुर्गम साधना की ,महिषासुर की भक्ति से प्रसन्न हो, जगतपिता ब्रह्मा महिषासुर के समक्ष उपस्थित हुए और महिषासुर को मनचाहा वरदान पानी के लिए कहा । महिषासुर ने अपनी लालसा के अनुसार ,अमर होने की इच्छा व्यक्त की, "हे ब्रह्मा ! मैं कभी भी न मरूँ मेरी मृत्यु कभी भी ना हो, मैं अमर हो जाऊं" इस पर ब्रह्मा जी ने अपनी असमर्थता जाहिर की, और कहा - "इस संसार में कोई भी प्राणी अमर नहीं हो सकता, मैं तुम्हें अमर होने का वरदान नहीं दे सकता, हे महिषपुत्र ! तुम कोई अन्य वरदान मांगो ।
फिर महिषासुर ने सोच कर कहा, हे ! जगतपिता ब्रह्मा अगर आपको मुझे कोई वरदान देना ही है, तो मुझे यह वरदान दीजिए कि, "मुझे कोई भी पुरुष न मार सके, मेरा वध केवल एक स्त्री के हाथों हो" ।
ब्रह्मा जी ने इस वरदान पर तथास्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गए, महिषासुर ऐसा वरदान पाकर अभिमानी हो गया, उसे ऐसे लगा, कि उसका अंत अब कभी भी नहीं होगा, क्योंकि वह स्त्री को तुच्छ मानता था ।
महिषासुर द्वारा स्वर्ग पर अधिकार
महिषासुर के वरदान प्राप्त करने के बाद उसका उत्पात अत्यधिक बढ़ गया, उसने केवल धरती ही नही वरन स्वर्ग के देवताओ पर चढ़ाई कर दी , उसके भय और आंतक से सभी प्राणी त्रस्त हो गये , धरती पर ऋषियो के यज्ञ भंग किये जाने लगे । धर्म का पतन होने लगा , साधुओ की असुरो द्वारा हत्यायें होने लगी , रक्त कोलाहल चारो तरफ उत्पात बढ गया था । महिषासुर ने स्वर्ग के राजा इन्द्र को युद्ध में ललकारा और ब्रह्मा जी के वरदान की वजह से वह इन्द्र देवता से विजयी हुआ । उसने इन्द्र को सिहांसन से अपदस्थ कर दिया । स्वर्ग पर महिषासुर का अधिकार हो गया ।
देवी दुर्गा की उत्पती
मुकुट के बिना अपमानित और लज्जित इन्द्र, प्रभु श्री हरि विष्णु के पास पधारे और समस्त देवतागणो ने एक स्वर में श्री हरि विष्णु से सहायता के लिए प्रार्थना की ।
प्रभु श्री हरि सब जानते थे, उन्होने महादेव का ध्यान किया और प्रभु शिव वहाँ उपस्थित हुए तब भगवान शिव ने कहा " ब्रह्मा जी के वरदान से यह असुर अत्यंत शक्तिशाली हो गया और इसे कोई भी पुरुष नही मार सकता,इसके अत्याचार और पाप सारी सीमा लांघ चुके है , अब उसके पाप का घडा भर चुका है , शीघ्र ही इस पापी का अंत देवी दुर्गा के हाथो से होगा " ।
प्रभु शिव कि यह सांत्वना भरी वाणी सुन सभी देवता अत्यंत प्रसन्न हुये और मन ही मन जगत् जननी माँ दुर्गा की स्तुती की,
समस्त देवताओं के अंश से देवी दुर्गा का निर्माण हुआ या यूँ कहे समस्त देवता देवी माँ दुर्गा के ही अंश है ।
जगत् जननी माँ दुर्गा ने समस्त देवताओ की शक्ति धारण की , प्रभु विष्णु से सुर्दशन चक्र, प्रभु शिव से त्रिशुल , कुबेर से गदा , प्रभु सूर्य से तेज , वरुण देव से शंख , सागर देव से वस्त्र और श्रृंगार , अग्नी से नेत्र और यम से यमपाश , इस प्रकार से समस्त देवताओं की शक्ति से माँ दुर्गा का प्रादुर्भाव हुआ ।
कात्यायनी माँ की कहानी
धरती लोक पर कात्यायन ऋषी की भक्ति से प्रसन्न होकर माँ दुर्गा ने उसे अपने पुत्री रूप में प्राप्त होने का सौभाग्य प्रदान किया । देवी दुर्गा के वरदान स्वरूप स्वयं साक्षात् जगत जननी माँ दुर्गा ने कात्यायन ऋषी के घर कात्यायनी रूप में जन्म लिया ।
देवी दुर्गा के कात्यायनी रूप में जन्म लेने पर समस्त देवता हर्षित हुए और माँ दुर्गा की स्तुती कर उनसे महिषासुर के संहार की प्रार्थना की ।
कुछ काल बितने पर माँ कात्यायनी ने कुमारी का रूप धारण किया और देवताओ की प्रार्थना स्वीकार कर , महिषासुर के आतंक से मुक्ति दिलाने का निश्चय किया ।
माँ कात्यायनी की युद्ध के लिए चुनौती
महिषासुर अपना पापमयी निरकुंश शासन चला रहे थे , वह मृत्यु का भय भूल चुका था , वह स्वयं को अजय और अमर मानता था , पर वह यह भूल चुका था की, सूर्य उदय के बाद सूर्यास्त भी होता है । महिषासुर के यह सूर्यास्त का ही समय था, उसके पाप का घडा भर चुका था ।
कुछ समय पश्चात् महिषासुर को दूत का संदेश प्राप्त हुआ , दैत्यराज आपको एक कुमारी युद्ध के लिए ललकार रही है ।
यह समाचार सुनकर महिषासुर हँसा और बोला "मेरा सामना करने का साहस तो देवराज इन्द्र मे भी नही है , कई देवता स्त्री के भेष मे आ कर मारे जा चुके है , लगता है इस कुमारी को ज्ञान नही, हम कौन है , यह तो मेरी तोहिन होगी कि एक कुमारी से मै युद्ध लडने जाऊँ , वह तो मेरी एक चुटकी में मारी जायेगी " |
इतना कहकर महिषासुर ने अपने असुर को हमला करने के लिए भेजा परन्तु वह युद्ध भूमी मे आते ही भस्म हो गया , वह देवी के तेज को सहन नही कर सका ।
माँ कात्यायनी ने अपना त्रिशुल धरती पर पटका तो सम्पूर्ण भूमण्डल कम्पायमान हो गया ।
इस कम्पन्न के प्रभाव से महिषासुर अपने सिहांसन से नीचे जा गिरा , उसे अहसास हुआ " यह कुमारी कोई साधारण स्त्री नही हो सकती " इतना सोचकर उसने युद्ध के लिए तैयारी की और अपनी विशाल सेना लेकर युद्ध भूमी में आ गया ।
महिषासुर का वध
दोनो तरफ की सेना युद्ध भूमी में आ डटी , माँ कात्यायनी की सेना में देवियाँ और महिषासुर की विशाल राक्षस सेना में असुरो की तरफ से संग्राम हुआ ।
यह युद्ध एक - एक कर नौ दिन तक लगातार जारी रहा , इस अवधि के दौरान स्वर्ग के देवताओ ने दुर्गा माँ की आरधना की और उनकी भक्ति के फलस्वरूप 9 दिन तक उपवास किया , यह परम्परां आज भी नवरात्र के रूप में चली आ रही है ।
माँ कात्यायनी और असुरो में 9 दिन तक युद्ध हुआ , इस अवधी के दौरान असुरो ने तमाम मायावी शक्तियों का प्रयोग किया । दसवें दिन महिषासुर कभी महिषे के रूप में कभी मनुष्य रूप में उसने माँ पर प्रहार किये परन्तु उसके समस्त प्रयास असफल हो गये ।
अंत में नवरात्र को दसवें दिन विजयदशमी के दिन जगत जननी माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध किया और माँ महिषासुर मर्दनी कहलायी । समस्त भूमण्डल को त्रास देने वाला असुर मारा जा चुका था , समस्त देवता प्रसन्न हुये और देवी दुर्गा की पुष्प वर्षा कर स्तुती की ।
महिषासुर की प्रार्थना
जब महिषासुर का अंत निकट था तब उसे प्रथम बार मृत्यु का भय हुआ । माँ का अद्भभुत तेजमय मुख देखकर महिषासुर की बुद्धी शुद्ध हो गई । महिषासुर ने देवी माँ से कहा " हे माँ ! मै आपको न जान पाया , हे ! जगत्जननी आपके समक्ष तो मै तिनका उठाने योग्य भी नही था , पर माँ आपकी दया और कृपा से मै 10 दिन तक युद्ध कैसे लड़ गया माँ ? हे माँ ! ये आपकी ही कृपा थी , मुझ अज्ञानी से बहुत से पाप हुये है, माँ मुझे क्षमा करो ! मै आपका ही बच्चा हूँ माँ , समस्त जगत् आपसे प्रकाश पाता है , मै भी तो इसी जगत का हिस्सा हूँ माँ ! अब शीघ्रता कर मेरा कल्याण करो माँ । आपके हाथो से उद्धार का सौभाग्य किसे मिलता है माँ ! "
इस पर देवी दुर्गा बोली " ये समस्त जगत् मेरी ही संतान है , तुम भी तो मेरे ही बच्चे हो महिषासुर, मै तुम्हारी बातो से अत्यंत प्रसन्न हुई और तुम्हे वरदान देती हूँ " जब कभी भी कही पर मेरी पूजा होगी तो मेरे साथ तुम्हारी भी पूजा होगी, मेरा यह रूप महिषासुरमर्दिनी के नाम से जाना जायेगा " ।
माँ दुर्गा से ऐसा अद्धभूत वरदान प्रकार वह अंत में ज्योती रूप बनकर माँ दुर्गा में समा गया ।
देवी माँ ने महिषासुर का कल्याण किया और समस्त जगत् को उसके भय से मुक्त किया । इन्द्र को उसका राजसिहांसन पुनः प्राप्त हुआ ।
महिष मनुष्य की बुरी प्रवृती है , उसका नाश कर शुद्ध बुद्धी होना और परम ज्योती अवस्था में देवी दुर्गा को पाना ही मुक्ति है । यह कहानी हमें बुराई का नाश कर अच्छा बनने और परमात्मा के समीप जाने का संदेश देती है ।
" हे जगत ! जननी माँ दुर्गा को मेरा प्रणाम "
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" जय माँ दुर्गा "