कुरु का जन्म (महाभारत की कथा)
कुरुवंश के प्रथम पुरुष का नाम कुरु था । कुरु बड़े प्रतापी और बड़े तेजस्वी थे । उन्हीं के नाम पर कुरुवंश की शाखाएं निकलीं और विकसित हुईं । एक से एक प्रतापी और तेजस्वी वीर कुरुवंश में पैदा हो चुके हैं । पांडवों और कौरवों ने भी कुरुवंश में ही जन्म धारण किया था । महाभारत का युद्ध भी कुरुवंशियों में ही हुआ था । किंतु कुरु कौन थे और उनका जन्म किसके द्वारा और कैसे हुआ था - वेदव्यास जी ने इस पर महाभारत में प्रकाश में प्रकाश डाला है । हम यहां संक्षेप में उस कथा को सामने रख रहे हैं । कथा बड़ी रोचक और प्रेरणादायिनी है ।
अति प्राचीन काल में हस्तिनापुर में एक प्रतापी राजा राज्य करता था । उस राजा का नाम सवरण था । वह सूर्य के समान तेजवान था और प्रजा का बड़ा पालक था । स्वयं कष्ट उठा लेता था, पर प्राण देकर भी प्रजा के कष्टों को दूर करता था ।
सवरण सूर्यदेव का अनन्य भक्त था । वह प्रतिदिन बड़ी ही श्रद्धा के साथ सूर्यदेव की उपासना किया करता था । जब तक सूर्यदेव की उपासना नहीं कर लेता था, जल का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारता था ।
एक दिन सवरण एक पर्वत पर आखेट के लिए गया । जब वह हाथ में धनुष-बाण लेकर पर्वत के ऊपर आखेट के लिए भ्रमण कर रहा था, तो उसे एक अतीव सुंदर युवती दिखाई पड़ी । वह युवती सुंदरता के सांचे में ढली हुई थी । उसके प्रत्येक अंग को विधाता ने बड़ी ही रुचि के साथ संवार-संवार कर बनाया था ।
सवरण ने आज तक ऐसी स्त्री देखने की कौन कहे, कल्पना तक नहीं की थी । सवरण स्त्री पर आक्स्त हो गया, सबकुछ भूलकर अपने आपको उस पर निछावर कर दिया । वह उसके पास जाकर, तृषित नेत्रों से उसकी ओर देखता हुआ बोला, "तन्वंगी, तुम कौन हो? तुम देवी हो, गंधर्व हो या किन्नरी हो? तुम्हें देखकर मेरा चित चंचल हो उठा । तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करके सुखोपभोग करो" ।
पर युवती ने सवरण की बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया । वह कुछ क्षणों तक सवरण की ओर देखती रही, फिर अदृश्य हो गई । युवती के अदृश्य हो जाने पर सवरण अत्यधिक आकुल हो गया । वह धनुष-बाण फेंककर उन्मतों की भांति विलाप करने लगा, "सुंदरी ! तुम कहां चली गईं? जिस प्रकार सूर्य के बिना कमल मुरझा जाता है और जिस प्रकार पानी के बिना पौधा सूख जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता । तुम्हारे सौंदर्य ने मेरे मन को चुरा लिया है । तुम प्रकट होकर मुझे बताओ कि तुम कौन हो और मैं तुम्हें किस प्रकार पा सकता हूं ?"
युवती पुन: प्रकट हुई । वह सवरण की ओर देखती हुई बोली, "राजन ! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूं, पर मैं अपने पिता की आज्ञा के वश में हूं । मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री हूं । मेरा नाम तप्ती है । जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ विवाह नहीं कर सकती । यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए" । युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई । सवरण पुन: उन्मत्तों की भांति विलाप करने लगा । वह आकुलित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और तप्ती-तप्ती की पुकार से पर्वत को ध्वनित करने लगा । सवरण तप्ती को पुकारते-पुकारते धरती पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया । जब उसे होश आया, तो पुन: तप्ती याद आई, और याद आया उसका कथन - यदि मुझे पाना चाहते हैं, तो मेरे पिता सूर्यदेव को प्रसन्न कीजिए । उनकी आज्ञा के बिना मैं आपसे विवाह नहीं कर सकती ।
सवरण की रगों में विद्युत की तरंग-सी दौड़ उठी । वह मन ही मन सोचता रहा, वह तप्ती को पाने के लिए सूर्यदेव की आराधना करेगा । उन्हें प्रसन्न करने में सबकुछ भूल जाएगा । सवरण सूर्यदेव की आराधना करने लगा । धीरे-धीरे सालों बीत गए, सवरण तप करता रहा । आखिर सूर्यदेव के मन में सवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ ।
रात का समय था । चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था । सवरण आंखें बंद किए हुए ध्यानमग्न बैठा था । सहसा उसके कानों में किसी की आवाज पड़ी, "सवरण, तू यहां तप में संलग्न है । तेरी राजधानी आग में जल रही है" ।
सवरण फिर भी चुपचाप अपनी जगह पर बैठा रहा । उसके मन में रंचमात्र भी दुख पैदा नहीं हुआ । उसके कानों में पुन: दूसरी आवाज पड़ी, "सवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग आग में जलकर मर गए" । किंतु फिर भी वह हिमालय-सा दृढ़ होकर अपनी जगह पर बैठा रहा, उसके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर पड़ा, " सवरण, तेरी प्रजा अकाल की आग में जलकर भस्म हो रही है । तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू कर रहे हैं" ' फिर भी वह दृढतापूर्वक तप में लगा रहा । उसकी दृढ़ता पर सूर्यदेव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा, "सवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूं । बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?"
सवरण सूर्यदेव को प्रणाम करता हुआ बोला, "देव ! मुझे आपकी पुत्री तप्ती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए । कृपा करके मुझे तप्ती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए " ।
सूर्यदेव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया, "सवरण, मैं सबकुछ जानता हूं । तप्ती भी तुमसे प्रेम करती है । तप्ती तुम्हारी है " ।
सूर्यदेव ने अपनी पुत्री तप्ती का सवरण के साथ विधिवत विवाह कर दिया । स्वर्ण तप्ती को लेकर उसी पर्वत पर रहने लगा और राग-रंग में अपनी प्रजा को भी भूल गया ।
उधर सवरण के राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ । धरती सूख गई, कुएं, तालाब और पेड़-पौधे भी सुख गए । प्रजा भूखों मरने लगी । लोग राज्य को छोड़कर दूसरे देशों में जाने लगे । किसी देश का राजा जब राग रंग में डूब जाता है, तो उसकी प्रजा का यही हाल होता है ।
सवरण का मंत्री बड़ा बुद्धिमान और उदार हृदय का था| वह सवरण का पता लगाने के लिए निकला| वह घूमता-घामता उसी पर्वत पर पहुंचा, जिस पर सवरण तप्ती के साथ निवास करता था| सवरण के साथ तप्ती को देखकर बुद्धिमान मंत्री समझ गया कि उसका राजा स्त्री के सौंदर्य जाल में फंसा हुआ है| मंत्री ने बड़ी ही बुद्धिमानी के साथ काम किया| उसने सवरण को वासना के जाल से छुड़ाने के लिए अकाल की आग में जलते हुए मनुष्यों के चित्र बनवाए| वह उन चित्रों को लेकर सवरण के सामने उपस्थित हुआ| उसने सवरण से कहा, "महाराज ! मैं आपको चित्रों की एक पुस्तक भेंट करना चाहता हूं|"
मंत्री ने चित्रों की वह पुस्तक सवरण की ओर बढ़ा दी| सवरण पुस्तक के पन्ने उलट-पलट कर देखने लगा| किसी पन्ने में मनुष्य पेड़ों की पत्तियां खा रहे थे, किसी पन्ने में माताएं अपने बच्चों को कुएं में फेंक रही थीं| किसी पन्ने में भूखे मनुष्य जानवरों को कच्चा मांस खा रहे थे| और किसी पन्ने में प्यासे मनुष्य हाथों में कीचड़ लेकर चाट रहे थे| सवरण चित्रों को देखकर गंभीरता के साथ बोला, "यह किस राजा के राज्य की प्रजा का दृश्य है?"
मंत्री ने बहुत ही धीमे और प्रभावपूर्वक स्वर में उत्तर दिया, "उस राजा का नाम सवरण है|"
यह सुनकर सवरण चकित हो उठा| वह विस्मय भरी दृष्टि से मंत्री की ओर देखने लगा| मंत्री पुन: अपने ढंग से बोला, "मैं सच कह रहा हूं महाराज ! यह आपकी ही प्रजा का दृश्य है| प्रजा भूखों मर रही है| चारों ओर हाहाकार मचा है| राज्य में न अन्न है, न पानी है| धरती की छाती फट गई है| महाराज, वृक्ष भी आपको पुकारते-पुकारते सूख गए हैं|"
यह सुनकर सवरण का हृदय कांप उठा| वह उठकर खड़ा हो गया और बोला, "मेरी प्रजा का यह हाल है और मैं यहां मद में पड़ा हुआ हूं| मुझे धिक्कार है| मंत्री जी ! मैं आपका कृतज्ञ हूं, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया|"
सवरण तप्ती के साथ अपनी राजधानी पहुंचा| उसके राजधानी में पहुंचते ही जोरों की वर्षा हुई| सूखी हुई पृथ्वी हरियाली से ढक गई| अकाल दूर हो गया| प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी| वह सवरण को परमात्मा और तप्ती को देवी मानकर दोनों की पूजा करने लगी| सवरण और तप्ती से ही कुरु का जन्म हुआ था| कुरु भी अपने माता-पिता के समान ही प्रतापी और पुण्यात्मा थे| युगों बीत गए हैं, किंतु आज भी घर-घर में कुरु का नाम गूंज रहा है|