कच और देवयानी की कहानी

Abhishek Jain
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वैदिक कहानियां - हमारी धरोहर में आज हम बतायेंगे कच और देवयानी की कहानी । जानिये कैसे कच ने असुर गुरु शुक्राचार्य से प्राप्त की मृतसंजीवनी विद्या ? । क्या था देवयानी का प्रस्ताव और क्यों हुये कच और देवयानी श्राप ग्रस्त ?

जानिये इस कहानी के माध्यम से -

देवता और असुरो में संघर्ष

प्राचीन काल में देवता और दैत्य राज्य तथा अधिकार के लिए हमेशा युद्ध करते ही रहते थे। देवता अपने गुरु बृहस्पति से सलाह लेते थे और दैत्य अपने गुरु शुक्राचार्य से परामर्श करते रहते थे। इधर, इन दोनों के गुरुओं बृहस्पति और शुक्राचार्य में भी होड़ थी। बृहस्पति वेदज्ञ थे, शुक्राचार्य को एक अतिरिक्त विद्या ‘मृतसंजीवनी’ आती थी।


देवयानी की कहानी

देवता बड़ी वीरता से युद्ध करते थे। उनके हाथों कई असुर सेनापति मारे जाते थे, पर दूसरे दिन वे फिर से जीवित होकर युद्ध के मैदान में आ जाते थे। देवताओं को यह रहस्य समझ में न आता था।

उन्होंने गुरु बृहस्पति से कहा- “ऐसे तो हम असुर सेना का कभी संहार कर ही नहीं सकते। उनका तो हर सैनिक या सेनापति मर कर जिंदा हो जाता है। हमारा युद्ध व्यर्थ हो रहा है।”

बृहस्पति ने कहा- “देवो! मैं इसके लिए असहाय हूं। शुक्राचार्य को ‘मृतसंजीवनी’ विद्या आती है। उसी का प्रयोग करके वे असुरों को जिन्दा कर देते हैं। मुझे यह विद्या नहीं आती।” 

इन्द्र ने कहा-“आपकी तरह शुक्राचार्य ने भी तो आपके पिता देवर्षि अंगिरा से शिक्षा प्राप्त की है। उन्हें यह विद्या कैसे मिली और आपको क्यों नहीं?”

बृहस्पति द्वारा उपाय बताना

बृहस्पति ने कहा-“देवराज! यह ठीक है कि मेरे पिता अंगिरा के गुरुकुल में ही हम दोनों सहपाठी रहे हैं। पिता अंगिरा का मुझ पर अधिक ही स्नेह था, इसलिए वह हम दोनों को असमान भाव से शिक्षा देते थे। सात्विक गुणों वाली शिक्षा देने में उन्होंने भेदभाव नहीं किया, पर शुक्र को अपनी उपेक्षा लगती थी। एक दिन वह महर्षि गौतम से परामर्श कर तामस शिक्षा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव की शरण में गए। शिव की सेवा-आराधना कर उसने उनसे संजीवनी विद्या प्राप्त कर ली। आज उसी अतिरिक्त विशेष ज्ञान का प्रयोग वे अपने यजमान असुरों के लिए कर रहे हैं।”

इन्द्र ने कहा- “गुरुदेव, अपने और पराए के भेदभाव से यही होता है। पर अब कुछ उपाय कीजिए कि इस विद्या का लाभ हमें भी मिले।”
 
बृहस्पति बोले- “इसके लिए आप मेरे पुत्र कच से अपनी सहायता के लिए निवेदन कीजिए।” 

इन्द्र ने कच को बुलाकर सारी बात बताई और कहा कि आप जाकर दैत्य गुरु शुक्राचार्य की सेवा कर उन्हें प्रसन्न कर संजीवनी विद्या सीखें। 

कच द्वारा आज्ञा का पालन

पिता की सहमति तथा देवताओं की विनती सुनकर कच तैयार हो गए और एक दिन गुरु शुक्राचार्य के पास जाकर निवेदन किया- “मैं महर्षि अंगिरा का पौत्र, बृहस्पति का पुत्र कच हूं। मुझे पिताजी ने आपके पास भेजा है कि जाकर आपका शिष्य बनूं, सेवा करूं तथा आपसे अतिरिक्त विद्या प्राप्त करूं। आप भले ही असुरराज वृषपर्वा के राजपुरोहित हैं, पर हैं तो भार्गववंशी ब्राह्मण ही, इसलिए आपको भी देवयज्ञों में भाग लेने का अधिकार दिलाया जाएगा।”

शुक्र ने अपने सहपाठी बृहस्पति के पुत्र एवं आचार्य अंगिरा के पौत्र कच को बड़े आदर से अपना शिष्य बनाया। कच भी अपने आचरण, सेवा तथा व्यवहार से शुक्राचार्य तथा उनकी बेटी देवयानी का बड़ा प्रिय हो गया। 

असुरो द्वारा कच की हत्या

कुछ दिन बीतने के बाद दानवों को जब पता चला कि देवगुरु बृहस्पति का पुत्र कच हमारे गुरु के आश्रम में रह रहा है तो उन्हें शंका हुई कि कुछ भेद की बात अवश्य है। बृहस्पति ने अपने पुत्र को अवश्य ही कोई भेद लेने भेजा है। इसलिए इस कंटक को हटाना चाहिए। 

एक दिन कच जब गौ चराने गया तो असुरों ने कच को वहीं मार डाला। शाम को गाएं जब आश्रम में आईं और कच नहीं आया तो देवयानी ने अपने पिता शुक्राचार्य से कहा-“गाएं तो कब की गोधूलि वेला में आश्रम में लौट आई हैं, पर कच अभी तक नहीं आया। लगता है, असुरों ने उसे देवगुरु का पुत्र होने के कारण मार डाला है।”

शुक्राचार्य द्वारा विद्या का प्रयोग

शुक्र ने कहा-“बेटी चिन्ता मत करो। कच हमारे यहां बृहस्पति की धरोहर है। मैं असुरों का यह दुष्कर्म सफल नहीं होने दूंगा।” ऐसा कहकर उन्होंने अपनी संजीवनी विद्या का प्रयोग कर कच! कच!! कच!!’ तीन बार पुकारा तो थोड़ी देर में कच गोचर से दौड़ता हुआ आ गया। 

कच ने शुक्राचार्य को सारी बात बताई कि किस प्रकार असुरों ने उसे गोचर में ही मार डाला था। कच को पुनः जीवित देखकर एक दिन तो असुरों ने हद कर दी। कच को मार कर उसे जला डाला और उसकी अस्थियों की राख को वारुणी में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दिया। असुरों ने सोचा, अब छुट्टी मिली। वह हमारे गरु के ही पेट में चला गया। सदा-सदा के लिए अन्त हो गया उसका। 

देवयानी ने जब फिर कच को नहीं देखा तो पिता से पूछा। पिता ने कहा “बेटी, लगता है असुरों ने फिर उसके साथ घात किया है। बृहस्पति को चाहिए था कि वह अपने पुत्र को असुर शिविर में नहीं भेजते। अब मैं क्या करूं। वे मारते रहें और मैं जिलाता रहूं, ऐसा कब तक चलेगा?” 

देवयानी ने कहा-“पिताजी! मैं कच के बिना नहीं रह सकती। वह मुझे बहुत प्रिय है। आपको उसे फिर से जीवित करना पड़ेगा।”

शुक्राचार्य अपनी बेटी को बहुत प्यार करते थे। उसकी बात टाल न सके। उन्होंने फिर संजीवनी मंत्र का प्रयोग कर कच को पुकारा तो शुक्राचार्य के पेट से ही आवाज आई-“गुरुदेव मैं यहां हूं। इस बार तो असुरों ने मुझे मारने के उपरान्त जलाकर मेरी अस्थियों की राख वारुणी में मिलाकर आपको पिला दी। मझे यहां से निकालिए।”


शुक्राचार्य द्वारा विद्या का दान

शुक्राचार्य आश्चर्यचकित हो गए। असुर इस हद तक जा सकते हैं, उन्हें विश्वास न हुआ, पर उनका दुष्कर्म तो प्रत्यक्ष दिख रहा था। उन्होंने कहा-“वत्स तुम मेरे पेट में रह चुके हो, अत: सुयोग्य पुत्र के समान व्यवहार करना। मैं तुम्हें संजीवनी विद्या का ज्ञान देता हूं। इससे तुम शरीरधारी होकर जीवित हो जाओगे। मेरा पेट फाड़कर निकल आना। मेरे मर जाने पर उसी विद्या का प्रयोग कर तुम मुझे फिर से जीवित कर देना।” 

कच ने कहा-“गुरुदेव, मैं आपका शिष्य हूं, अब उदर-पुत्र भी बनूंगा, मैं आपका कृतज्ञ रहूंगा।” 

शुक्राचार्य ने उसे संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया। तत्पश्चात कच जीवित होकर शक्राचार्य का पेट फाड़कर बाहर आया। शुक्राचार्य निष्प्राण हो गए तो उन्हीं से सीखी विद्या का उसने शुक्राचार्य पर प्रयोग किया। शुक्राचार्य जीवित हो गए।

एक दिन उन्होंने कच से कहा-“वत्स! तुम्हारा जीवन यहां सुरक्षित नहीं है। तुम अपने देव-लोक को लौट जाओ।”

कच जिस उद्देश्य से आया था, वह पूरा हो चुका था। उसे संजीवनी विद्या आ गई थी। उसने भी जाने का निश्चय किया। 

देवयानी की याचना 

एक दिन जब वह जाने लगा तो देवयानी ने कहा-“कच, तुमने इतने दिन यहां रहकर, अपने आचरण, सेवा, विनय तथा जितेन्द्रियता से जो व्यवहार किया है, उससे मुझे तुमसे प्रेम हो गया है। तुम मेरा विधिपूर्वक पाणिग्रहण करो। मैं तुम्हारी पत्नी बनकर तुम्हारे साथ चलूंगी।”

कच द्वारा प्रस्ताव ठुकराना

ऐसा प्रस्ताव सुनकर कच ने कहा- “बहन! ऐसी अमर्यादित अधर्म की बात तुम्हारे मन में कैसे आई? मैं एक प्रकार से तुम्हारे पिता के शरीर से पैदा हुआ हूं, इस नाते तुम मेरी बहन हो। गुरु शुक्राचार्य तुम्हारे पिता हैं, तो इस नाते वह मेरे भी पिता हैं। ऐसी अनर्थ की बात सोचो ही मत। मैंने इस आश्रम में ब्रह्मचारी का सदाचारी जीवन बिताया है। ऐसा करना आश्रम, देव, धर्म, विधान आदि सब का उल्लंघन होगा। इसलिए क्षमा कर दो। मैं ऐसा काम नहीं कर सकता।” 

देवयानी और कच द्वारा एक दुसरे को श्राप देना

अपने प्रेम और प्रस्ताव के ठुकराए जाने से देवयानी आहत हुई। क्रोध में भरकर वह बोली-“यदि मेरी याचना नहीं स्वीकार कर रहे हो तो मैं शाप देती हूं कि यहां से प्राप्त ज्ञान तथा सिद्धि तुम्हारे किसी काम नहीं आएगी।

कच ने हंसकर कहा-“बहन! तुमने यह शाप काम के वशीभूत होकर दिया है। यह धर्मानुसार नहीं है, मुझसे यह विद्या सिद्ध नहीं होगी, पर जिसे मैं सिखाऊंगा, उसे अवश्य सिद्ध होगी। विद्या कभी नष्ट नहीं होती। अब मेरी ओर से इस शाप का प्रतिदान भी लो-“भविष्य में कोई भी ब्राह्मण कुमार तुमसे विवाह नहीं करेगा। ब्राह्मणेतर जाति के किसी युवक से ही तुम विवाह करोगी।” 

एक प्रकार से दोनों ही शापग्रस्त हो गए। कच कभी संजीवनी विद्या का प्रयोग देवों के लिए नहीं कर सका और देवयानी को भी क्षत्रिय राजा ययाति की रानी बनना पड़ा।


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" जय श्री हरी " 

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